दोस्तों,  मेरा मानना है कि कवि भी एक इंसान ही होता है, और उसके दिमाग में भी विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विचार आते-जाते रहते हैं..........और कवि का धर्म है कि वो ऐसी रचनाएँ लिखे जो आम आदमी की समझ में सहज ही आ जाएँ, क्योकि उसे जनकल्याण की  बात सोचनी चाहिए, ना कि किसी विशेष वर्ग की जो की बहुत गहरी समझ रखता हो....... आज की भागा-दौड़ी भरी जिंदगी में हम अपने बारे में नहीं सोचते.......एक हल्की-फुल्की रचना आपकी नज़र है...........

खुद पे ध्यान दो:

खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो

जा रहे कहाँ हो तुम, कहाँ है मंजिल तुम्हारी
यूँ ही भटकने को कहते, ये तो मज़बूरी हमारी
कोई मज़बूरी नहीं है, ये तो कोरी धूर्तता है
रोज सब कुछ देखते हो, ना समझना मूर्खता है
चैन की साँसें तो ले लो, हंसने को अंजाम दो
खुद पे ध्यान दो, कभी  खुद पे ध्यान दो ...........

मशीनों के साथ रहकर, मशीनों से हो गए हम
खुशी में हम खुश न होते, गम में आँखें नहीं हों नम
बेटा आए-बेटी जाए, कहते हैं हम हाय-बाय 
गले मिलकर देखो यारो, दिल पिघल दिल में समाये 
प्रकृति से ज्ञान लेकर, प्रकृति  को मान दो
खुद पे ध्यान दो, कभी  खुद पे ध्यान दो ........

मानवी  मस्तिष्क को, दरकार अंकुश की है हर-पल 
जो निरंकुश आज हैं, निशिचत  नहीं के होंगे वो कल
इश्वरी शक्ति का अंकुश, छुपा हुआ है जगत में
इससे डरकर ही लगे सब, इश्वरी आओ भगत में
अहम् जागे अगर मन में, ईश का उसे म्यान दो
खुद पे  ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
(कवि अशोक कश्यप)

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