दोस्तों, आप सभी ने इस कविता के कुछ अंश बहुत सराहे थे। इसी को ध्यान में रखकर पूरी कविता आपकी सेवा में है। आशा है आप ज़रूर निभाएंगे इसे........धन्यवाद।

कितनी बार:

कितनी बार होंसला खोया मैंने अपना
कितनी बार डरा-सहमा हर टूटा सपना
कितनी बार हिलोर हृदय की दबा गया था
कितनी बार क्रोध मैं अपना चबा गया था

तुम आये मैंने पाया जीवन आया है
इश्वर अब नीरस जीवन में रस लाया है

कितनी बार दुखा दिल मेरी नासमझी से
कितनी बार हुआ दिल बोझिल संगदिली से
कितनी बार समझ को तेरी ना समझा मैं
कितनी बार समझकर भी तो नहीं समझा मैं

तुमने हर पल ध्यान रखा मेरा मेरे मन का
टूटा मगर रहा बंधन में सम्मोहन सा 

कितनी बार मयूर सा नाचा मन मेरा ये
कितनी बार सुरूर सा सांचा तन तेरा ये
कितनी बार सुहाना मौसम तुम लाये हो
कितनी बार बहार प्यार सी तुम छाये हो

तुम चंदा मैं चकोर हूँ जन्मों-जन्मों से
धर्म-कर्म से जुड़े हुए अपनों-अपनों से
धर्म-कर्म से जुड़े हुए अपनों-अपनों से............
(कवि  अशोक कश्यप)


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