दोस्तों, हर आदमी किसी न की धुन में जी रहा है, और तभी वो खुश भी है...........
नशा:
नशे में हरेक मन है, कहकशे में हरेक तन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन
बहुतों को है धन का नशा, बहुत जगह धन है फंसा
जहाँ-जहाँ धन है फंसा, वही उनका मन है फंसा
कमाते हैं, बचाते हैं, खर्चता कोई और जन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन
कुछों को है मन का नशा, कुछ जनों में मन है बसा
जिनमे उनका मन है बसा, उन्हीं पर तो धन है फंसा
लेते हैं, लौटाते नहीं, उन्हीं को फिर दें वो धन
नशे में हरेक मन है, कहकशे में हरेक तन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन
कम ही को जन-जन का नशा, जन-जन में तन है फंसा
जिनमें उनका तन है फंसा, उन्हीं में जीवन है फंसा
ज़िन्दगी अपनी लुटा दें, करता जन-जन वंदन
नशे में हरेक मन है, कहकशे में हरेक तन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन
(कवि अशोक कश्यप)
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