दोस्तों, स्त्री-पुरुष, एक-दूसरे के पूरक है। मेरे विचार में एक-दूसरे के लिए दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण हैं, इससे ज्यादा कुछ भी इस संसार में महत्वपूर्ण नहीं है।.......आज दिनांक 28.05.2012 को राष्ट्रिय दैनिक 'महामेधा' में मेरी कविता 'उत्सव' प्रकाशित हुई है........संपादक महोदय ने कुछ काट-छाँट की है, इसलिए मूल कविता भी लिख रहा हूँ। जरूर पढ़ें ......
फूलों में है खुशबु तो हो, भई मेरी बला से
मुझको तेरी सांसों की महक इत्र सी लगे
चिड़ियों की है चहक तो इसमें खास कुछ नहीं
चूड़ी की खनक में तेरी संगीत मधुर है
कई बार घूम आया हूँ परियों के देश मैं
कोई हूर कभी तेरी जगह ले ही न सकी
तुझसे अलग सोया जो मैं फूलों की सेज पर
करवट बदल - बदल मेरी रातें कई कटीं
यूँ ले चुका हूँ स्वाद मधुर व्यंजनों का मै
पर तेरे दाल फुल्कों का मज़ा ही अलग है
होली गई दीवाली गई दशहरा गया
तेरे बिना उत्सव सभी बेमानी से लगे
मुजरा सुना मयखाना गया खुश न मै हुआ
मासूम सी बातों का तेरी अलग नशा है
(कवि अशोक कश्यप)
मुझको तेरी सांसों की महक इत्र सी लगे
चिड़ियों की है चहक तो इसमें खास कुछ नहीं
चूड़ी की खनक में तेरी संगीत मधुर है
कई बार घूम आया हूँ परियों के देश मैं
कोई हूर कभी तेरी जगह ले ही न सकी
तुझसे अलग सोया जो मैं फूलों की सेज पर
करवट बदल - बदल मेरी रातें कई कटीं
यूँ ले चुका हूँ स्वाद मधुर व्यंजनों का मै
पर तेरे दाल फुल्कों का मज़ा ही अलग है
होली गई दीवाली गई दशहरा गया
तेरे बिना उत्सव सभी बेमानी से लगे
मुजरा सुना मयखाना गया खुश न मै हुआ
मासूम सी बातों का तेरी अलग नशा है
(कवि अशोक कश्यप)
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