हिंदी के मूर्धन्य महाकवि: कबीर


प्रस्तावना:- 
कबीर जी संत, कवि, समाज सुधारक और एक इश्वर को मानने वाले थे। वे सिकंदर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ फारसी में 'महान' होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा, बिना कबीर की चर्चा के अधूरी है। जिस समय कबीरदास जी भारत में मशहूर हुए। उस समय हिन्दू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीरदास जी ने अपने पंथ को कुछ इस ढंग से सुनियोजित किया, जिससे मुस्लिम मत की और झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गई। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी, ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सकें। अपनी सरलता, साधू स्वभाव तथा संत प्रवृति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जीवों और जगत से अलग और परम समर्थ माना गया है, परन्तु कबीरदास जी के राम/इश्वर तो प्रकृति के कण-कण में विधमान हैं। कबीरपंथी एक धार्मिक समुदाय भी है जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को जीने की शैली का आधार बनाये हुए है।

जन्म:- 
कबीरदास जी का जन्म काशी में सन १३९८ की ज्येष्ठ पूर्णिमा को लहरतारा नामक स्थान में हुआ था। जुलाहा परिवार में इनका पालन पोषण हुआ था। कबीर जी के जन्म के विषय में अनेक किंवदंतियाँ हैं। कुछ लोगों का मानना है की कबीरदास जी जगद्गुरु 'रामानंद स्वामी' के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्रहमाणी के गर्भ  से उत्पन्न हुए थे। ब्रहमाणी उस नवजात शिशु को लहरतारा नाम के तालाब के पास फैंक आई, जिसे 'नीरू' नाम के जुलाहे ने अपनाया और उसका पालन-पोषण किया। इसके आलावा कबीर पंथियों का मानना है कि 'कबीरदास' जी की उत्पत्ति काशी में लहरतारा नामक तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नामक 'देवांगना' के गर्भ से भक्त प्रह्लाद ही संवत १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे। खुद कबीर दास जी ने कहा है......

'हम कासी में प्रकट भये, रामानंद चेताये'

वर्णन:-
 कबीरदास जी अख्खड़ और निडर तथा रूडिवाद के विरोधी थे। इसका कारण शायद उनका बहुत ईमानदार तथा उनके मन का बहुत निर्मल होना था। हिंदी साहित्य में कबीरदास जी का व्यक्तित्व अनुपम है। 'गोस्वामी तुलसीदास' को छोड़कर इतना महिमामंडित व्यक्तित्व संत कबीरदास जी के सिवा किसी और का नहीं है।  
कबीरदास जी ने जीवन के संघर्षों को बहुत करीब से देखा था। सबसे पहले तो उनके जन्म को ही लोगों ने उपहास बनाया। फिर जीविका चलाने को उनको करघे पर निरंतर कठिन परिश्रम करना पड़ता था। इसके आलावा भी उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों और विरोधियों द्वारा दी गई बहुत सी कठिनाइयों का सामना उनको करना पड़ा। छोटी उम्र से ही बड़ी बातें कबीरदास जी सीख चुके थे। यही कारण है की उनके साहित्य में सामाजिक सुधारों के प्रति गहरी और तर्कपूर्ण समझ देखने को मिलती है। शायद इसी वजह से इतनी बड़ी संख्या में उनके अनुयायी उस समय भी थे। उनके द्वारा रचित कुछ दोहे हैं।......

जाति न पूंछो साधु की, पूंछ लिजियो ज्ञान 
मोल करो तलवार कौ, पड़ा रहन दो म्यान 

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय  
दो पाटन के बीच में, साबुत बचया न कोय 

दुःख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय 
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे होय 

माटी कहे कुम्हार ते, तू क्या रोंदे मोय 
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूंगी तोय 

मैंने इनकी (कबीरदास जी) जीवन यात्रा पर आधारित एक 'नाटक का मंचन' देखा था सन २००१ में 'श्रीराम सेंटर' मंडी हॉउस,नई दिल्ली में। उसमें दिखाया गया था कि कबीरदास जी कि जब शादी हुई, तो इनकी पत्नी ने पहले ही दिन बता दिया था कि वो किसी और से शादी करना चाहती थी, मगर दुर्भाग्य से कबीदास जी के साथ उनकी शादी हो गई है। कबीरदास जी बड़े साफ़ और खुले विचारों के थे, वो समय इस मामले में बड़ा ही सख्त रवैया रखता था, पूर्ण रूदिवाद था उस समय। परन्तु कबीर जी ने तुरंत कहा की क्या उस लडके की रजामंदी शादी के लिए है.......? अगर उस लडके ने शादी करने से मना कर दिया तो ....? पत्नी को पूर्ण विश्वास था इस बात का कि वो लड़का भी उनसे पूरी तरह आसक्त है, और वो शादी के लिए मना नहीं कर सकता.... उसने कहा वो शादी के लिए मना कर ही नहीं सकता। वो मुझसे बहुत प्यार करता है। कबीदास जी बोले चलो तो जल्दी से,अभी कुछ भी देर नहीं हुई है। मैं तुम दोनों की शादी करवाउंगा। उसी समय दोनों चल पड़े। बरसात का मौसम था, सारे नदी-नाले पानी से भरे पड़े थे, कठिनाइयों से जूझते हुए किसी तरह से उस गाँव में पहुंचे जहाँ वो लड़का रहता था। कबीरदास जी ने दोनों को बात करने के लिए अलग छोड़ दिया। मगर थोड़ी देर बात करने के बाद उनकी पत्नी वापस उनके पास आ गई और बोली उसने शादी से मना कर दिया। कबीर जी ने पूंछा क्यों...? तो पत्नी बोली उसने कहा तुम्हारी शादी हो गई है और दो दिन-रात बीत चुके हैं। कबीर जी ने कहा लेकिन हमारे बीच कोई पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं बना है, पत्नी ने कहा कि मैंने उसे लाख समझाया, कसम दी और कसम ली बड़ी से बड़ी, मगर वो नहीं माना। कबीरदास जी बोले तो अब क्या करें...? पत्नी बोली मैं मर जाना चाहती हूँ। मैंने आपके साथ धोखा किया है।कबीरदास जी बोले कोई धोखा नहीं किया। धोखा तब होता जबकि तुम मुझे बताती ही नहीं, और कबीरदास जी अपनी पत्नी को साथ ले आये। उसके बाद तो कबीरदास जी का दाम्पत्य जीवन ऐसा चला कि लोग उनके दाम्पत्य जीवन की  मिशालें देते थे और इनसे अपने वैवाहिक जीवन को शांतिप्रिय बनाने  के लिए सीख लेते थे। कबीरदास जी और उनकी पत्नी में बहुत गहरी समझ विकसित हो चुकी थी। इसका एक कारण कबीरदास जी के मन का निर्मल होना और उनका साधू स्वभाव भी था। कबीरदास जी के पुत्र का नाम 'कमाल' तथा पुत्री का नाम 'कमाली' था। कबीरदास जी गरीब ही थे। उनको अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए करघे पर बहुत काम करना पड़ता था। 

 

कुछ लोगों का कहना है कि कबीरदास जी  मुसलमान थे और युवावस्था में 'स्वामी रामानंद' के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। कुछ लोग उनके पालन-पोषण को जुलाहा परिवार में होने के कारण उन्हें मुसलमान समझते थे। कहा जाता है कि एक दिन एक पहर रात रहते ही कबीरदास जी पंचगंगा घाट की सीढियों पर गिर पड़े। रामानंद जी गंगास्नान करने के लिए सीढियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम' नाम शब्द निकला, उसी राम को कबीर ने 'दीक्षा-मन्त्र' मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।


कुछ जन श्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर जी ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटाकर हिन्दू भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को ह्रदयंगम कर अपना लिया था।
कबीर जी के घर में साधू-संत तथा फकीरों का जमावड़ा लगा रहता था। कबीर जी पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होने लिखा है।.....

'मसि कागद छुवो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ'


कबीर दास जी ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिखे थे अपितु जो कुछ भी वो मुहं से बोलते थे, उनके शिष्य लिख लेते थे। उनके विचारों में राम नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही इश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति पूजा, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। वो कहते थे .....

'पत्थर पुजो हरी मिलौ, तौ मैं पूजो पहाड़' 

साहित्यिक कृतियां:-
कबीरदास जी के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है।
एच.एल. विल्सन के अनुसार कबीरदास जी के आठ ग्रन्थ हैं। विशप जी.एच. वेस्तकाट ने कबीरदास जी के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की है। रामदास गौड़ ने हिंदुत्व में ७१ पुस्तकें गिनाई हैं।
कबीरदास जी की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्द है। इसके तीन भाग हैं - रमैनी, सबद तथा साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधि, पुरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओँ की खिचड़ी है। इसके अलावा बावन-अक्षरी, उलट-बासी आदि में भी उनके उपदेश हैं। कबीरदास जी की इश्वर के प्रति आस्था बहुत निराली है। वे माता-पिता, मित्र, पति, आदि के रूप में परमात्मा को देखते हैं। वे कहते हैं......

'हरि मोर पिऊ, मैं राम की बहुरिया'

तो कभी वो कहते है कि........ 

'हरी जननी मैं बालक तोरा'

कबीरदास जी मानवता के नाते समाज में एक दूसरे की मदद करने की सिफारिश करते थे। वे कहते है.........

'बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर'

जहाँ दया तहां धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप 
जहाँ क्रोध तहां काल है, जहाँ क्षमा वहां आप 

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय 
मीन  सदा जल में रहे, धोये बॉस न जाय 

काशी में प्रचलित मान्यता के अनुसार जो वहां मरता है। उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। रूढ़िवाद के विरोधी कबीरदास जी को ये मान्य नहीं था। इसीलिए काशी को छोड़कर 'मगहर' चले गये। कबीरदास जी कहते है......

ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार 
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार 

तथा घोर आत्मचिंतन में सन 1518 के आस-पास लगभग 119 वर्ष की आयु में वहीं पर देह तयाग किया। मगहर में ही कबीर जी की समाधि है। जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनोँ पूजते हैं।
वृद्धावस्था में यश और कीर्ति क़ी मार ने कबीर दास जी को बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में कबीर जी ने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण के लिए देश के विभिन्न भागों में घूमे। उन्होंने लिखा है।....

''बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय 
जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय''
  
इसी क्रम में जब वे कालिंजर जिले के 'पिथौराबाद' शहर में पहुंचे, तो वहां उन्हें रामकृष्ण का एक छोटा सा मंदिर दिखा और वहां के संत जो कि भगवान् गोस्वामी के जिज्ञासु थे और उनके साधक थे, किन्तु उनके तर्कों का अभी पूरी तरह से समाधान नहीं हुआ था। सन्त कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीरदास जी से मिलकर उन्हें बहुत अच्छा लगा। कबीरदास जी कि एक साखी ने उनके मन पर बहुत गहरा असर किया।

'बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।' 

भावार्थ है कि वन से भागकर बहेलिये के द्वारा खोदे हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी, अपनी व्यथा किससे कहे..........?
सारांश यह है कि धर्म की जिज्ञासा से प्रेरित होकर भगवान् गोसाईं अपना घर-बार छोड़कर बाहर तो निकल आये, मगर हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिरकर अकेले निर्वासित होकर असंवाद की स्थिति में पड़ चुके हैं।
मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाज़िर की है............

'पाहन पूजे हरि मिलैं, तौ मैं पूजौं पहार।
वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।

वो भगवान् राम या मोहम्मद पैगम्बर के अनुयायी नहीं थे। कबीर के राम और पैगम्बर तो विश्व के कण-कण में समाये हुए है......और परम समर्थ हैं। परन्तु वो समस्त जीवों से भिन्न नहीं है। उन्होंने कहा है......

'व्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी।
रावन-राम कवनसुं कावन, कवन वेद को रोगी।

कबीर राम की किसी ख़ास रूपाकृति की कल्पना  नहीं करते, क्योंकि रूपाकृति की कल्पना करते ही राम किसी ख़ास ढांचे में बन्ध जाते। जो कबीर जी को किसी भी हालत में मंजूर नहीं था। कबीर राम की अवधारणा को एक भिन्न और व्यापक स्वरुप देना चाहते थे। इसके कुछ विशेष कारण  थे। कबीरदस जी इश्वर/ राम से एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का रिश्ता जरूर स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी आलोकिक और महिमाशाली सत्ता को एक क्षण भी भुलाये बगैर सहज प्रेमपरक मानवीय संबंधों के धरातल पर प्रितिस्थिर  है।
कबीर जी नाम में विश्वास रखते हैं रूप में नहीं। हालाकि भक्ति संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रितिष्ठित है कि नाम रूप से बढ़कर है। कबीर जी ने इस सिद्धांत का क्रांतिधर्मी प्रयोग किया। कबीरदास जी ने राम नाम के साथ लोकमानस में शताब्दियों से रचे-बसे संश्लिष्ट भावों को व्यापक रूप देकर उसे पूर्ण-प्रतिपादित ब्राहमण वादी विचारधारा के खांचे में बंधे जाने से रोकने की कोशिश की।
कबीर जी ने निर्गुण राम की बात की है। कबीर जी का इससे आशय केवल इतना था कि इश्वर को किसी नाम, रूप, गुण, काल आकृति आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वदा  विधमान हैं वही कबीरदास जी के राम हैं। और वो इश्वर की सर्वत्रता के लिए उनसे परस्पर मानवीय सम्बन्ध भी दर्शाते हैं। कभी वो राम को माधुरी भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दास भाव से अपना स्वामी मान लेते हैं। 
कबीरदास जी बहुत बड़े समाज सुधारक और दार्शनिक थे। ये उनकी एक साखी सिद्ध करती है। उन्होंने बहुत अच्छी बात कही है।.....

'संतौ धोखा कसून कहिये। गुण मैं निर्गुण, निर्गुण मैं गुण, बात छाडी क्यूँ बहिसे'।

कबीरदास जी का सारा जीवन सत्य की खोज तथा असत्य के खंडन में व्यतीत हुआ। कबीरदास जी की साधना मानने से नहीं जानने से आरंभ होती है। वे किसी के शिष्य नहीं हैं सिर्फ संत रामानंद द्वारा चेताये हुए हैं। 
उनके लिए राम रूप नहीं है, उनके राम राज़ा दशरथ के पुत्र राम नहीं है। उनके राम प्रकृति के कण-कण में समाये हुए राम हैं। जो अविनाशी है और प्रेम तत्व के प्रतीक हैं। भाव से ऊपर उठाकर महाभाव या प्रेम के आराध्य हैं......

'प्रेम जगावे विरह को, विरह जगावे पिऊ, पिऊ जगावे जिउ को, जोई पिऊ सोई जिउ'

इसी कारण उनकी साधना ''हंस उबारन आये की साधना'' है। इस हंस का उबारना पोथियों के पढ़ने से नहीं हो सकता।

''पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ, पंडित भया ना कोय
ढाई आखर प्रेम को, पढ़े सो पंडित होय''

उनके अनुसार धर्म ओढ़ने की चीज़ नहीं है। ये तो जीवन में आचरण करने  की साधना है। उनकी साधना प्रेम से आरंभ होती है। वे कहते हैं की इतना गहरा प्रेम करो कि वही तुम्हारे लिए परमात्मा हो जाये। उसको पाने की इतनी उत्कंठा हो जाए कि सबसे वैराग्य हो जाय, विरह भाव हो जाय। तभी उस ध्यान समाधि में पिऊ जाग्रत हो सकता है। और वही पिऊ तुम्हारे अंतर्मन में बैठे जीव को जगा सकता है। ''जोई पिऊ है, सोई जिउ है''।
तब तुम पूरे संसार से प्रेम करोगे, तब संसार का प्रत्येक जीव तुम्हारे प्रेम का पात्र बन जायेगा। सारा अहंकार, सारा द्वेष दूर हो जायेगा। फिर महाभाव जागेगा। इसी महाभाव से पूरा संसार पिऊ का घर हो जाता है।



सूरज-चन्द्र का एक ही उजियारा, सब यही पसरा ब्रह्म पसारा।

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी 
फूटा कुम्भ जल, जल ही समाना, यह तथ कथौ गियानी। 

कबीरदास जी के जींवन का अंतिम समय मगहर में ही बीता तथा घोर आत्मचिंतन में सन 1518 के आस-पास वहीं पर देह तयाग किया। मगहर में ही कबीर जी की समाधि है। जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनोँ पूजते हैं।
कबीरदास जी का एक दोहा है......

''राम बुलावा भेजिय़ा, दिया कबीरा रोय 
जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय'' 

उपसंहार:-  
कबीर दास जी अपने समय से बहुत आगे की सोच रखते थे। उस समय जबकि भक्तिकाल था, उन्होंने मूर्ति पूजा और मंदिर-मस्जिद की पूजा, नमाज आदि को नकार दिया और एक ही इश्वर की आराधना पर बल दिया जो कि सर्वव्यापी है। समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुढियों का उन्होंने घोर विरोध किया तथा इंसान को इंसान के ज्यादा करीब लाने की बात करते हुए समाज सेवा की। इसके लिए भारतीय समाज क्या सारा विश्व ही आज भी उनके कहे गए दोहों के माध्यम से सबक लेता है और उनका उदाहरण देता है। आज कोई भी सभा हो कोई भी चर्चा हो कबीरदास जी के दोहों का जिक्र और उनका स्मरण न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। भारतीय हिंदी साहित्य उनका बहुत ही ज्यादा आभारी है और उनकी उपदेश पूर्ण कृतियों से सुशोभित है। मानवता सदा उनकी ऋणी रहेगी।

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये 
मै  भी भूँखा  ना रहूँ, साधु  न भूंखा जाय 

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय
भागत के पीछे लगे, सन्मुख आगे होय 

समाप्त 

कवि अशोक कश्यप 
सतर्कता अनुभाग (उ.वा. उ.)
भारत मौसम विज्ञान विभाग, नई दिल्ली 

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Spicy and Interesting Poem Shared by You. Thank You For Sharing.
Pyar Ki Kahani in Hindi
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद