समझते हैं:

जहाँ में ज़हर जहाँ ने आज इतना घोला
दवा को ज़हर यहाँ लोग अब समझते हैं

हमने सौ बार उन्हें आँखों से हम-दम बोला 
पता ना हमें वो ग़द्दार क्यों समझते हैं...? 

आज दिल चीर कर भी सामने अगर रख दो 
उसे भी ढोंग यहाँ लोग अब समझते हैं 

बहार भी है गुलिस्तां में बेखबर गुल है
बहार को भी खिज़ा आज गुल समझते हैं

उनका इनकार भी इकरार से ना कमतर था
उनके इनकार को भी प्यार हम समझते हैं
  
जहाँ में जहाँ भी रहें वो रहें सुख से
अपनी इस सोच पर हम अपना हक़ समझते हैं
(कवि अशोक कश्यप)


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