दोस्तों, सन 2004 में ये ग़ज़ल लिखी थी। आज दिनांक 19-07-2012 को राष्ट्रीय दैनिक 'महामेधा' समाचार-पत्र ने इसे प्रकाशित किया है .........
शर्मिंदा हूँ:
मैं किसी बात पे इतना अधिक शर्मिंदा हूँ
बड़ी हैरत में हूँ कि अभी तलक जिंदा हूँ
उसने बेईज्जती भी की तो बाइज्ज़त की
शर्मिंदा हूँ:
मैं किसी बात पे इतना अधिक शर्मिंदा हूँ
बड़ी हैरत में हूँ कि अभी तलक जिंदा हूँ
उसने बेईज्जती भी की तो बाइज्ज़त की
हो न हो उसके मन के गीत का साजिंदा हूँ
चाहे कुछ और आशय हो उसकी बातों का
मैं तो समझा के बुराई का मैं पुलिंदा हूँ
उसकी आँखों में कुछ मासूम सी नमी दीखी
मैं तो आज़ाद हूँ पिंजरे का ना परिंदा हूँ
समय गुज़रा वो बेसमय का सा सैलाब गुज़रा
अब उसके माथे का सरताज़ सुर्ख बिंदा हूँ
चाहे कुछ और आशय हो उसकी बातों का
मैं तो समझा के बुराई का मैं पुलिंदा हूँ
उसकी आँखों में कुछ मासूम सी नमी दीखी
मैं तो आज़ाद हूँ पिंजरे का ना परिंदा हूँ
समय गुज़रा वो बेसमय का सा सैलाब गुज़रा
अब उसके माथे का सरताज़ सुर्ख बिंदा हूँ
मैं किसी बात पर इतना अधिक शर्मिंदा हूँ
बड़ी हैरत में हूँ कि अभी तलक जिंदा हूँ
(कवि अशोक कश्यप)
(कवि अशोक कश्यप)
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