छुपना पड़ा:

छुपना पड़ा गुलों को भी दामने-खार में
ए ज़िन्दगी बैठी है तू किस इंतज़ार में

वो बचाते फिरते मिले इज्ज़त-ओ- आबरू
जो कहते फिर रहे थे सब हैं भ्रष्टाचार में

आगे चलेगा वो यहाँ जिसमें दिमाग है
तू दिल की कश्ती ले चला है बेकार में

हर आदमी हमको यहाँ कुछ खास ही लगा
जब तक नहीं पड़ा था कुछ कोलो-करार में

दुनिया ये चल रही है बड़ी तेज़ चाल से
अपने कदम बढ़ाके चलो रफ्फ्तार में

अपने भी दूसरे भी सभी चाहते क्या हैं
मैं सोचता फिरता हूँ मेहनते-गुबार में

अल्लाह की रहमत कहूँ या बादशाह की
चलने लगा हूँ यार मैं भी वेगन-आर में
(कवि अशोक कश्यप)

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