बहुत पहले इसी मौसम में लिखी गयी ये यादगार कविता है दोस्तों.......

शाम सुहानी-ऋतु रूहानी:

दिनभर लूँ गरम-गरम चलती
धरती से यूँ तपन निकलती
भट्टी जले कोयले की ज्यों
गरम हवा की चुभन लगे यों

यों दिन बीत रहे गरमी में
गरमी नहीं आती नरमी में
दूर दिशा में बदल छाये
पल-पल लगे ये पल में आये

झलक दिखाय मेघ हुए ओझल
माँ-मयूर मन में हुआ बोझिल
उमस बढ़ी तन हुआ तर-बतर
करे पसीना बद से बदतर

हुआ सवेरा, छटा अँधेरा
फिर से नभ मेघों ने घेरा
अबकी बार यूँ बरसा पानी
भूल गए गरमी की कहानी

शाम हुई छत पर जा बैठे
ठंडी हवा के झोंके बहते
शाम सुहानी ऋतु रूहानी
मन मयूर नाचे नूरानी 

मस्ती में पड़े पैर पसारे
ज्यों जगदीश हों ज़मीं पधारे
जीने से आहट सी आई
मन मुराद सी हमने पाई

स्वर गूंजा कोकिल कंठी यूँ
सात सुरों की सरगम हो ज्यूँ
दिल के निकट ये स्वर रहता है
 पावन गंगा सा बहता है

यहाँ बैठे हो आकर के यूँ
मैं ढूँढू हर कमरे सर सूं
मौसम की मदहोशी मुझपर
मन मांगी मुराद फिर तिसपर

दोनों इतने पास आ गए
आँखों पर बादल से छा गए
दिल धड़ाके दिलबर दीदार से
मन महके मोहक मल्हार से

मदहोशी चप्पे-चप्पे पर
हाथ प्लेट गोलगप्पे भर
पानी भर-भर मुझे खिलाती
मद प्याला सा मुझे पिलाती

समय ठहर सा गया था उस पल
इतना हसीं नहीं था कोई पल
इतना हसीं नहीं था कोई पल..........
(कवि  अशोक कश्यप)











 

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