दोहे:
लाखों दीखें मुखौटे, मुख दीखें दो-चार
इसीलिए हैं आदमी, अन्दर से बीमार

लक्ष्य जहाँ धुंधला लगे, वहाँ न छोड़ो तीर
''कश्यप'' ना सह पाओगे, दशरथ जैसी पीर

गुणकारी थे कृष्णजी, गुणकारी थे राम
इसीलिए वो खास हैं, और हम सभी आम

पासे जिनके हाथ में, वही सुझाएँ दाव
ऐसे-कैसे लगेगी, पार तुम्हारी नाव 

'कश्यप' जी तू ख़ुशी से, मज़े उड़ा तू रोज
क्या है, क्यों है, कहाँ है, क्योँ करता है खोज

कृष्ण कंस से अमर हैं, रावण  से हैं राम
नीति-रीति सब उलट, फ़िर भी जिंदा नाम 
(कवि अशोक कश्यप) 

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