दोस्तों,  आज दिनांक 20-11-2012 को सभी हिंदी भाषी राज्यों से प्रकाशित राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्र 'महामेधा' में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल 'समझते हैं' के कुछ शेर .........

समझते हैं:

जहां में ज़हर जहां ने आज इतना घोला
दवा को ज़हर यहाँ लोग अब समझते हैं

हमने सौ बार उन्हें आँखों से हमदम बोला
पता ना हमें वो गद्दार क्यों समझते हैं

आज दिल चीरकर भी सामने अगर रख दो
उसे भी ढोंग यहाँ लोग अब समझते हैं

बहार भी है गुलिस्तां में, बेखबर ग़ुल है
बहार को भी खिज़ा आज ग़ुल समझते हैं

उनका इनकार भी इकरार से ना कमतर था
उनके इनकार को भी प्यार हम समझते हैं

जहां में जहाँ भी रहें, वो रहें सुख से
अपनी इस सोच पर हम अपना हक़ समझते हैं
 (कवि अशोक कश्यप)

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