समझने को मेरी वो हर समझ बेताब रहता है
मैं होठों से बयां करता वो आँखों ही से कहता है
मगर हम दूर रहते हैं ज़मीन और आसमानों से
वो जो कहता मैं सुनता हूँ मैं जो कहता वो करता है


जबां से बात होती है तो आधी सी अधूरी सी
भरे बैसाख ज्यों रहती किसी के घर फ़कीरी सी
मगर जब देखते हैं वो समझ कर मुझको अनदेखा
मिलें नज़रें हमारी जब तो हो बरसात पूरी सी
(कवि अशोक कश्यप)

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