दोस्तों, ज्यों-ज्यों हम तरक्की की सीढियाँ चढ़ते जा रहे हैं। त्यों-त्यों ज़िन्दगी की चाल तेज़ और बहुत तेज़ होती जा रही है। एक कविता आपकी नज़र है.........

आदमी:

आदमी अब आदमी-सा ना रहा
ये जहां अब उस जहां-सा ना रहा

वो जहां था अपनों का अहसास था
भावनाओं का दिलों में वास था
दुःख तो थे, पर बांटने को बहुत थे
स्वार्थ भी अपने सभी के निहित थे
आज दुःख और दर्द, वैसा ना रहा
ये जहां अब उस जहां सा ना रहा..........

वो जहां था, सुबह थी या शाम थी
ज़िन्दगी सबकी, सभी के नाम थी
शाम को सब मिलते थे, बतलाते थे
खिलखिलाते, ऋतु के गीत गाते थे
आज ऋतु का गीत वैसा ना रहा
ये जहां अब उस जहां-सा ना रहा......

शादी-संबंधों का उत्सव था मज़ा
भागा-दौड़ी की ना थी कोई सजा
महीनों रंग-मंच जैसा चल रहा
भागीदारी सबकी, ना कोई छल रहा
आज वो रंग-मंच वैसा ना रहा
ये जहां अब उस जहां सा ना रहा.........

आदमी अब आदमी-सा ना रहा
ये जहां अब उस जहां-सा ना रहा
(कवि अशोक कश्यप)



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