दोस्तों, आज होली के रंगों में हम सभी 'महिला दिवस' को भूल गए शायद ........सन २००५ में 'शिवरंजिनी कलाकुंज' नाम की अखिल भारतीय सामाजिक संस्था ने मेरी एक कविता 'नारी' को संगीतबद्ध कराकर गाना बनवाया था जिसे वो अपने नुक्कड़ नाटकों में देश के कोने-कोने में मंचन करवाते थे, इसमे महिला को हर रिश्ते को निभाते बताया है ......आज 'महिला दिवस २०१२' पर इसको फिर पोस्ट कर रहा हूँ........आप सभी की प्रतिक्रिया और आशीर्वाद चाहता हूँ ........
नारी:-

नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी
रिश्ते-नांतों को निभाने में, नारी नर पे है सदां भारी 
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी

घर में बेटी ने जन्म लिया, घर वालों को तब जीना आया
मनमानी जो बाप सदां करता, उस बाप को ग़म पीना आया
कुछ बड़ी हुई तो घर का काम नाजुक हाथों से करती थी
बेटा-बेटी में भेद देख वो समझ के भी ना समझती थी
ससुराल के सुख में भी ना भूली, भैया, बाबा और महतारी
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी

जिस भाई की कोई बहन नहीं, उस भाई से पूंछो बहन क्या है
छोटी है तो संस्कारी देवी, बड़ी बहन तो स्नेही माँ है
रक्षाबंधन के दिन सूनी वो कलाई देखकर रोता है
काली हैं 'दीवाली' की रातें 'भाई-दूज' को दिन भर सोता है
रिश्ते की जो कोई बहन मिले उसे लगती है जान से भी प्यारी
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी

प्रेयसी बनी यह राधा सी, तन से नहीं मन से प्यार किया
दिल-दिमाग की तो बात छोडो, जीवन ही प्यार पर वार दिया
धोखा खाकर भी प्यार को ये, बद-दुआ कभी नहीं बोली है
तू जिसे लूटकर उछल रहा, वो सच्ची तेरी हमजोली है
खुद ठगा हुआ महशूस किया, जब समझा तू ये दुनिया-दारी
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी  
 
पत्नी ये सती सावित्री-सी, यम से भी पति को मांग लिया
संस्कारी, त्यागी, सीता-सी, पति के संग वन-वन गमन किया
तुलसी, अनुसुइया, अहिल्या ये, देवों के भी सिर झुका दिए
संहारिनी, दुर्गा, महाकाली शिव-शंकर जिनको नमन किये
नर को ये बना दे नारायण, 'करबा' के दिन है छवि न्यारी
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी 
 
माँ के रूप की बात ही क्या है, धरती पर भगवान् है वो
जिसकी कोख से जन्म लिए हैं, अब तक के अवतार हैं जो
कौशल्या, देवकी, यशोदा, जीजाबाई-सी माता हैं
इन्हीं से शिक्षा पाकर बच्चा, शूरवीर कहलाता है
लालन-पालन ही से करती, जीवन यात्रा की तैयारी
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी

रिश्ते-नांतों को निभाने में, नारी नर पे है सदां भारी 
नारी से दुनिया सारी, फिर भी नारी बेचारी
(कवि अशोक कश्यप)

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