दोस्तों, मैं सरकारी नौकरी में हूँ। मेरी दाल-रोटी ठीक चल रही है, मगर मैंने देखा है कि आम लोगों को ज़िन्दगी जीने   के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है........बहुत पहले की लिखी ये कविता है....

संघर्ष:
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष
जीवन एक जल्लाद का घर काँटों भरा फर्श
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष

बचपना मासूम मगर किताबों से यहाँ लड़े
कुछ तो देखो नंगे पैर भीख माँगें खड़े-खड़े
कुछों को है घर चलाना पिता जैसे साथ रहते
काम वो जीतोड़  करते गालियाँ अपमान सहते
एक दिन ऐसे गुज़रता, जैसे गुज़रे एक वर्ष
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष......

बहुत से बच्चे निकम्मे मौज-मस्ती करने चले
शौक दुनिया भर पाले मुसीवत फिर पड़ीं गले
पैसों के जुगाड़ को फिर हेरा-फेरी कर रहे हैं
पुलिस है दिन-रात पीछे जीते-जी वो मर रहे हैं
हाय मैया बोलते हैं घाव धोती है जो नर्स
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष.......

बचपने में भीख मांगी
पचपने  में उम्र झांकी
काम कुछ भी किया नहीं
इसलिए कुछ हुआ नहीं
सड़क पर बैठे ठिठुरते, आता है लोगों को तर्स
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष.........

जो किताबों से लड़े थे
बहुत ज्यादा जो पढ़े थे
सपने थे मन में सजाये
जोर सारे आजमाए
सफ़लता फिर भी ना पाए
बस में चढने से भी डरते, खाली जो है उनका पर्स
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष.......

पिता जैसा सहारा बन, बचपना मेहनत में गुज़रा
जवानी भी ढल रही है, ना सुना कभी भी मुज़रा 
आत्म-निर्भरता है फिर भी, आत्मरक्षा नहीं करता 
अनुभवी बहुत है मगर, कुछ भी कहने से है डरता 
भावनाओं में बहकता, जब मिले कोमल स्पर्श
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष

जीवन एक जल्लाद का घर, काँटों भरा फर्श
हर तरफ संघर्ष, यहाँ हर तरफ संघर्ष
(कवि अशोक कश्यप)


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