बंदगी

हर आदमी कभी न कभी किसी न किसी रूप में ईश्वर की आराधना करता है


आदमी कई बार टूटा और जुड़ा है जिंदगी में
तोड़कर सौ मूर्ति आखिर मुडा है बंदगी में

जब तलक आशा निराशा में नहीं सब बदलती हैं
तब तलक उत्साह उम्मीदें उछलती मचलती हैं
इस उछल उत्साह में ईश्वर को भैया कौन पूंछे
बेवजह मंदिर में जाके क्यों करे मूंछें वो नीचे
दर्द से दुःख से सभी के बेखबर है दरिंदगी में
आदमी कई बार ................

कौन है बिन स्वार्थ ले गम दूसरों के अपने सिर पर
सिर्फ ईश्वर बोलता, आ गोद में तू मेरी गिर पड़
गोद में गिर गिरहें गांठे, मन की कह बिन अहम् त्यागे
डॉक्टर सब कह रहे गम बाँट दो तो वो दूर भागे
दवा ऐसी मुफ्त में मिल पायेगी शर्मिंदगी में
आदमी कई बार...............

जैसा सोचो वैसा होगा ज्ञानी-विज्ञानी बताते
सोच बनती पाक जब हम पास ईश्वर के हैं जाते
पाक मन में पाक कर्मों की तमन्ना सिर उठाती
पाक कर्मों को समझ दुनियां उसे फिर सिर झुकाती
सिर झुकाती भूल जाती कल पड़ा था गन्दगी में
आदमी कई बार टूटा और जुड़ा है जिन्दगी में
तोड़कर सौ मूर्ति आखिर मुडा है बंदगी में
(कवि अशोक कश्यप)

Comments