खुदपर ध्यान दो
खुद पर ध्यान दो
खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
जा रहे कहाँ हो तुम, कहाँ है मंजिल तुम्हारी
यूँ ही भटकने को कहते, ये तो मज़बूरी हमारी
कोई मज़बूरी नहीं है, ये तो कोरी मूर्खता है
रोज सब कुछ देखते हो, न समझना धूर्तता है
चैन की साँसें तो ले लो, हंसने को अंजाम दो
खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
मशीनों के साथ रहकर, मशीनों से हो गए हम
खुशी में हम खुश न होते, गम में आँखें नहीं हों नम
बेटा आए बेटी जाए, कहते हैं हम हाय-बाय
गले मिलकर देखो यारो, दिल पिघल दिल में समाये
गले मिलकर देखो यारो, दिल पिघल दिल में समाये
प्रकृति से ज्ञान लेकर, प्रकृति को मान दो
खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
मानवी मस्तिष्क को, दरकार अंकुश की है हर पल
जो निरंकुश आज है, निश्चित नहीं के होंगे वो कल
इश्वरी शक्ति का अंकुश, छुपा हुआ है जगत में
इससे डरकर ही लगे सब, इश्वरी आओ- भगत में
अहम् जागे अगर मन में, ईश का उसे म्यान दो
खुद पे ध्यान दो, कभी खुद पे ध्यान दो
(कवि अशोक कश्यप)
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