दोस्तों,  एक जमाना था जब काम पर से आकर सभी गली-मोहल्लों में शाम को घन्टों बातें करते रहते थे। शादी-ब्याह में तीन दिन बारात का रुकना तो आम बात थी और महीनों पहले से घर में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था। मगर आज विज्ञान की तरक्की से जिंदगी को आसान बनाने के साधन तो बहुत से आ गए हैं आज .........परन्तु किसी के पास भी समय नहीं है ....? ना ही वो हँसी-ख़ुशी का अपनत्व भरा मस्ती का माहौल है .....?......ऐसे में ये कविता ही बनती है ...........

विज्ञान तरक्की पर-प्रकृति संतुलन पर:

हर तरफ सौन्दर्य बिखरा, प्रकृति की गोद में
आदमी मगर लगा है, प्रकृति के शोध में

शोध करके प्रकृति में, करता है ये उलट-फेर
रोज़ उलझनें सुलझाये, फिर भी उलझनों का ढेर

प्रकृति से, प्रकृति को, जन्म हुआ आदमी का
पर ये खुराफाती हुआ, रूप छोड़ा सादगी का

क्रिया-प्रतिक्रिया खोजी, पर नहीं ये समझ पाया
विश्व उँगली तले लिया, क्यों नहीं फिर चैन आया

बम एटम का बनाकर, विश्व में है मर्द बना
सोचता अब, रखूं कहाँ, ये तो है सिर दर्द बना .....?

मशीनी दुनिया बनाकर, खुद मशीन बन गया है
अकेला रहकर वो जिए, रिश्तों में घुन लग गया है

न्यूज़ चेनल बताते हैं, विश्व मुट्ठी में लिया अब
पडौसी मर गया अपना, पता चला तेरहवीं जब

खाली बैठी पत्नी, 'कुकिंग रेंज' में बनाकर खाना
बदन थुलथुला हुआ, और 'बोर हो गई' देती ताना

बदन को स्लिम बनाने, हेल्थ क्लब में अब वो आती
समय तो कुछ बचा नहीं, फालतू में फीस जाती

श्रम और समय बचाने को, सभी ये यंत्र बने
उबला खाओ ज़िम में जाओ, डाक्टरों के मन्त्र बने

संतुलन  प्रकृति रखती, हमेशा हर हाल में
खुश रहो और प्यार बाँटो , मत फँसो जंजाल में
 (कवि अशोक कश्यप)

 

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