नशा और कहकशा

 नशा और कहकशा  

हर आदमी किसी न किसी धुन में जी रहा, 'मगर अन्ना हजारे जी' आज के बापू (महात्मा गाँधी) हम सब के लिए जी रहे हैं और हमारे लिए अपनी जान देने पर उतारू हैं,......इस कविता का आखिरी अंतरा अन्ना जी को समर्पित है.........

नशे में हरेक मन है, कह्कशे में हरेक तन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन

बहुतों को है धन का नशा
बहुत जगह धन है फंसा
जहाँ जहाँ धन है फंसा
वही उनका मन है फंसा
कमाते है बचाते है, खर्चता कोई और जन
नशे मै हरेक.............

कुछ जनों को मन का नशा
कुछ जनों में मन है बसा
जिनमें उनका मन है बसा
उन्हीं पर तो धन है फंसा
लेते है लौटते नहीं, उन्हीं को फिर दें वो धन
नशे मै हरेक..........

कम ही को जन-जन का नशा
जन-जन में तन है फंसा
जिनमें उनका तन है फंसा
 उन्हीं में जीवन है फंसा
जिंदगी अपनी लुटा दें, करता जन-जन वंदन
नशे में हरेक मन है, कह्कशे में हरेक तन
इसी से संतुलन में है, दुनिया का हरेक जन

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