दोस्तों, जब कहीं अपनी रचना प्रकाशित होती है तो बहुत ख़ुशी होती है परन्तु रचना लापरवाही के साथ अर्थ का अनर्थ करती हुई प्रकाशित हो तो बहुत दुःख होता है। आज दिनांक 04 .12 .2013 के राष्ट्रीय दैनिक 'महामेधा' समाचार पत्र में प्रकाशित इन दोहों के साथ ऐसा ही हुआ है। इसीलिए इनका मूल रूप भी लिखना पड़ रहा है। 

 दोहे :

 भागा भागा जग फिरे, जगमग जग की चाह
 जगमग जग की चाह में, निकल रही है आह

 पत्थर फैके राह में, मस्ती में खो जाय
लोटे जब घर शाम को, उस से ठोकर खाय

पड़ा रहे अब खाट पर, जीवन की है शाम
पल-पल मांफी माँगता, बुरे किये थे काम


बेईमानी फसल जो, खड़ी-खड़ी लहराय
घर में लाया ले गई, घर को साथ बहाय

मेहनत की चक्की पिसा, जो भी आटा खाय
इस दुनिया में स्वर्ग वो, जीते जी पा जाय 
 
अपने पलकों बिठा लो, अपने मन को यार 
फिर सपने में भी नहीं, होंगे तुम बीमार 

जिन पंखों को मिल गई, अपनों की परवाज
वो ही जाकर दूर तक, करें गगन पर राज

एक पाँव पर खड़ा हो, कोई तपस्वी आज
निश्चित है कि पीढ़ियां, कर पाएंगी राज

भष्टाचारी सांप जब, बिल में गुल हो जाय
तब आकर कोई केजरी, मीठी बीन बजाय 

लहरों पर पहरे लगे, करते गहरे घाव
क्या समुद्र का देवता, करेगा कोई बचाव
 
ईश्वर में है क्या धरा, बोल रहा अभिमान 
ईश्वर में सारी धरा, कहता प्रतिभावान 
 
जग बोले में चतुर हूँ, चल तू मेरे संग 
मैं बोलूं ईमान की पी राखी है भंग 
(कवि अशोक कश्यप)

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