गीत: नन्हीं सी चिडि़या

नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है
बाज़ों से पंगा लेने को रज़ामन्द है

पनघट पर पहुंची पनिहारी पुकारी
प्यासी हूँ मैं मुझे पानी पिला री
खैर नहीं तेरी ओ सुन रे अन्नदाता
बच्चों को क्यों कर तू दाना ना लाता
मेरा हर उपवन का फूल, फल, कन्द है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

फुर्र-फुर्र फूलों-फलों फुदकी फिरती
डाल-डाल डोले डराए ना डरती
किसकी मजाल कोई रोके या टोके
खाए हैं इससे तो गिरगिट ने धोखे
बोलती दबंगई में कितना आनन्द है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

कहती चिड़ा से कि अब ना सहुंगी
अन्नयाय की बात सबसे कहुंगी
घर बाल-बच्चों को तुम भी संभालो
थोड़ा चौके-चूल्हे का भी मज़ा लो
मेरे डिनर का तो बाहर प्रबंध है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

घूम-घूम घर-घोंसला घेर, घेरे
संस्कारों के संग लिए सात फेरे
बाहर की दुनिया में भी आई आगे
लालच के लडडू के पीछे ना भागे
पाक-साफ नीति है नहीं अंर्तद्वद है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

शेर से कहती है अपनी मांद को दिखाओ
शिकारों का सही-सही ब्यौरा बताओ
लोमड़ी लगी लारा-लप्पा लगाने
कौए को भेजा समझाने-बुझाने
कहलाया चमचों को दरवाजा बन्द है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

बोला बहेला मैं जाल बिछाता हूँ
पंगे के फंदे में इसे फॅसाता हूँ
समय चक्र से नादां बड़ा बेखबर है
भूकम्प से कहता पत्थर का घर है
प्रकृति में परिवर्तन स्थाई छन्द है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है

बाज़ों से पंगा लेने को रज़ामंद है
नन्हीं सी चिडि़या का होंसला बुलन्द है
(कवि अशोक कश्यप)

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